परिचय
इस्लाम केवल एक धार्मिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक संपूर्ण जीवन शैली है, जिसमें व्यक्ति के व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक, और आध्यात्मिक पहलुओं को संतुलित किया गया है। इस्लामी जीवन पद्धति के पाँच बुनियादी स्तंभ (अरकान-ए-इस्लाम) होते हैं:
- शहादत (ईमान)
- नमाज़
- ज़कात
- रोज़ा
- हज
इनमें से ज़कात एक सामाजिक आर्थिक प्रणाली है, जिसे इस्लाम ने अनिवार्य किया है ताकि समाज में धन का संतुलन बना रहे और गरीबों, ज़रूरतमंदों की मदद हो सके। आइए विस्तार से जानें कि इस्लाम में ज़कात क्या है, इसकी क्या शर्तें हैं, कैसे दी जाती है और इसका महत्व क्या है।
ज़कात क्या है?
"ज़कात" एक अरबी शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है:
- पाकी
- शुद्धि
- वृद्धि
इस्लामी शरिया के अनुसार, ज़कात वह अनिवार्य धनराशि है जो हर सक्षम मुसलमान को साल में एक बार अपने माल (धन) का एक निश्चित हिस्सा गरीबों, ज़रूरतमंदों और निर्धारित वर्गों को देना होता है। यह न केवल धन की शुद्धि है, बल्कि आत्मा की भी सफाई है।
क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता है:
"उनकी संपत्ति में गरीब और वंचित का हक़ है।" (सूरह अज़-ज़ारियात 51:19)
"और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात अदा करो…" (सूरह अल-बक़रह 2:43)
ज़कात की अनिवार्यता
इस्लाम में ज़कात की अनिवार्यता को नकारना कुफ्र माना गया है, और उसे न देने पर सख़्त चेतावनी दी गई है। हज़रत अबू बकर (रज़ि.) ने ज़कात न देने वालों के खिलाफ युद्ध किया था। इसका उद्देश्य यह दिखाना था कि ज़कात देना इस्लाम का गंभीर और अनिवार्य पहलू है।
- ज़कात किन पर फ़र्ज़ है?
ज़कात केवल उन मुसलमानों पर फ़र्ज़ है जो निम्नलिखित शर्तों को पूरा करते हैं: - मुसलमान होना: ग़ैर-मुस्लिम पर ज़कात फ़र्ज़ नहीं।
- बालिग़ होना: बच्चा ज़कात का ज़िम्मेदार नहीं।
- अक़्लमंद (समझदार) होना: पागल पर ज़िम्मेदारी नहीं।
- मालिक-ए-निसाब होना: जिसके पास एक निश्चित मात्रा से ज़्यादा माल एक साल तक रहे।
- माल में बढ़ोतरी की संभावना हो (नामी माल): जैसे सोना, चाँदी, नकद, व्यापारिक माल आदि।
- कर्ज़ से मुक्त: अगर कोई शख़्स बहुत कर्ज़ में डूबा हो, तो ज़कात उस पर फ़र्ज़ नहीं।
निसाब (Zakat Threshold) क्या है?
निसाब वह न्यूनतम संपत्ति है जिससे अधिक होने पर ज़कात फ़र्ज़ होती है। नबी ﷺ के ज़माने से तय किया गया निसाब आज भी उपयोग किया जाता है:
सोने के लिए: 87.48 ग्राम (साढ़े सात तोला)
चाँदी के लिए: 612.36 ग्राम (साढ़े बावन तोला)
अगर किसी व्यक्ति के पास एक साल तक इतनी या इससे अधिक संपत्ति रहती है, तो उस पर ज़कात देना अनिवार्य है।
ज़कात की दर (रेट) क्या है?
ज़कात की सामान्य दर 2.5% है यानी यदि किसी के पास 1,00,000 रुपये हैं जो निसाब से ऊपर हैं, और वह साल भर तक उसके पास रहे, तो उसे ₹2,500 ज़कात के रूप में देना होगा।
कुछ अन्य दरें भी हैं:
खेती/फसल पर: सिंचाई के प्रकार पर 5% या 10%
खनिज संपत्ति पर: 20% (ख़ुम्स)
पालतू जानवरों पर: अलग-अलग हिसाब
ज़कात किन चीज़ों पर लगती है?
सोना और चाँदी: गहने, सिक्के, आदि
नकद धन: बैंक बैलेंस, कैश
व्यापारिक माल: बेचने के इरादे से रखे गए सामान
शेयर/बॉन्ड्स: जो व्यापार में निवेश हों
किराए की आमदनी: कुछ फुकहा इसे भी ज़कात के दायरे में मानते हैं
ज़कात के हक़दार (कौन ले सकता है?)
क़ुरआन (सूरह तौबा 9:60) के अनुसार, ज़कात निम्न 8 वर्गों को दी जा सकती है:
फ़क़ीर (निर्धन)
मिस्कीन (अत्यंत ज़रूरतमंद)
आमिलीन (ज़कात इकट्ठा करने वाले कर्मी)
मुअल्लफ़तुल-क़ुलूब (इस्लाम के प्रति आकर्षित करने हेतु)
गुलाम की आज़ादी में
कर्ज़दार
अल्लाह के रास्ते में (जैसे दीन का प्रचार, जिहाद आदि)
मुसाफ़िर (जो सफर में मुसीबत में हो)
ज़कात अपने माता-पिता, दादा-दादी, बच्चों, नातिन-पोतों को नहीं दी जा सकती। लेकिन भाई, बहन, चाचा, चाची, भतीजा, भतीजी आदि को दी जा सकती है यदि वे ज़रूरतमंद हों।
ज़कात देने का तरीका
नीयत: ज़कात देने से पहले इरादा ज़रूरी है।
हिसाब करना: पूरे साल का सही-सही हिसाब लगाएं।
सीधे देना: ज़कात खुद गरीब को दें या भरोसेमंद संस्था को दें।
इज्ज़त से देना: किसी का अपमान न हो।
जल्द अदा करना: देरी न करें, जैसे ही साल पूरा हो, अदा करें।
ज़कात का सामाजिक महत्व
समाज में बराबरी लाना: धन का प्रवाह अमीर से गरीब की ओर होता है।
गरीबी हटाना: ज़रूरतमंदों की मदद होती है।
दौलत की पाकीज़गी: ज़कात देने से माल पाक होता है।
ईमान की मज़बूती: यह अल्लाह के हुक्म की इताअत है।
दुनिया और आख़िरत में सफलता: ज़कात देने वाले को दुनिया में बरकत और आख़िरत में सवाब मिलता है।
ज़कात न देने का अंजाम
जो लोग जानबूझकर ज़कात नहीं देते, उनके लिए क़ुरआन और हदीस में सख़्त चेतावनी दी गई है:
"जो लोग सोना और चाँदी जमा करते हैं और अल्लाह के रास्ते में खर्च नहीं करते, उन्हें दुखद सज़ा की खबर दो..." (सूरह तौबा 9:34)
निष्कर्ष
ज़कात इस्लामी आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ है। यह एक अमीर और गरीब के बीच का सेतु है। यह न केवल एक धार्मिक कर्तव्य है, बल्कि समाज में समानता, भाईचारा और इंसानियत का प्रतीक भी है। हर मुसलमान को चाहिए कि वह इस फ़र्ज़ को समझे, उसका सही हिसाब रखे और ज़रूरतमंदों को इज्ज़त के साथ ज़कात अदा करे।